शुक्रवार, 26 मार्च 2010

गुरु प्रकाश

सत्संग के बिना विवेक नहीं होता है,विवेक के लिये समर्पण भाव की आवश्यकता होती है,समर्पण बिना श्रद्धा के नही होता है,श्रद्धा बिना चमत्कार के नही होती है,चमत्कार बिना अदभुतता के नही होता,अदभुतता प्राप्त करने के लिये ज्ञान की आवश्यकता होती है और ज्ञान गुरु के बिना मिल नही सकता है,गुरु बिना संयोग के नहीं मिलता है,संयोग बिना भावना के नही मिलता है,भावना के लिये कल्पना जरूरी होती है,कल्पना बिना आवश्यकता के नही होती है,आवश्यकता के लिये शरीर का होना आवश्यक है,शरीर के लिये माता पिता और माता पिता के लिये रहने वाला स्थान,रहने वाले स्थान के धरती और धरती के लिये उसका जनक सूर्य,मतलब भौतिकता में भी जाकर सूर्य से ही मुकाबला करना है।
जो भी गुरु मिलता है वह दो कारण अपने प्रथमावस्था में प्रदान करता है,या तो वह मंत्र दीक्षा देता है,मंत्र दीक्षा बिना शब्द के नही है,शब्द ब्रह्म से प्रकट हुआ है,ब्रह्म को साक्षात करने वाला सूर्य है,सूर्य का द्रश्य भाव रोशनी है,कई गुरु दोनों आंखों को बन्द करने के बाद आंखों की पलक पर अपनी विशेषमुद्रा वाली उंगलियों के दबाब को देते है और एक नीले रंग का प्रकाश आंखों के सामने प्रस्तुत होता है,वही प्रकाश ब्रह्माण्ड की परिभाषा में प्रयोग करने के बाद गुरु का आशीर्वाद मान लिया जाता है। कितने ही गुरु चलने वाली सांसों को मन एकाग्र करने के बाद समझने की बात करते है,हर सांस को खींचने के वक्त होने वाली आवाज को "सो" और सांस के छोडे जाने के वक्त होने वाली आवाज "हम" को चरितार्थ रूप से वर्णन करते है,इसे अजपा की संज्ञा से भी विभूषित किया गया है। दिन और रात की कुल सामान्य चलने वाली सांसों की गिनती को भी २१६०० बताई गयी है। मतलब दिन की १०८०० और रात की १०८०० इसी के साथ माला का भी योगात्मक रूप दिया गया है,मतलब एक माला के अन्दर १०८ मनके। संख्या के सिद्धान्त से और अंकशास्त्र के अन्दर १ को सूर्य और शून्य को ब्रह्माण्ड तथा ८ को शनि की उपाधि से विभूषित किया गया है। मतलब साक्षात रूप से एक तरफ़ सूर्य और दूसरी तरफ़ शनि तथा बीच में संसार के साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड स्थापित है। सांस का आना सकारात्मक,मतलब जीवित है,और सांस का छोडना मतलब नकारात्मक मतलब मरना,दिन और रात में १०८०० बार मरना,१०८०० बार जीवित होना,मरने और जिन्दा रहने की अवस्था में इस शरीर का इतना अभ्यास लगातार करते रहना,उसके बाद भी दिन में जीवित रहने की अवस्था में कार्य करना और रात को सोने के समय निद्रा में चले जाने के बाद एक प्रकार से मर ही जाना,मरने में भी जीवित रहने और मरने का भान,मरने के बाद जीवित रहने का भान यह ही कटु सत्य है जिसे आध्यात्मिकता में गुरु ज्ञान और गुरु प्रकाश का रूप दिया गया है। गुरु के शरीर की पूजा,गुरु के गुणों की पूजा,गुरु के शब्दों का मनन,गुरु के आदेश को मानकर चलते रहना,गुरु को ही सकारात्मक और नकारात्मक मान कर चलना,यह श्रद्धा भाव की सीमा में चला जाता है,मैने ऊपर ही लिखा है कि श्रद्धा के बाद भी कही सीढिय़ां और आगे हैं।

3 टिप्‍पणियां:

Priyanka ने कहा…

Nice article.

Bhadauria ने कहा…

बिनु सत्सन्ग विवेक न होई.जबतक अच्छा सदगुरु सामने नहीं होगा,विवेक प्राप्त होना मुशिकिल है.पाँच प्राण ,पाँच इन्द्रिया,मन बुद्धि और अह्न्कार ,जब तक कन्ट्रोल नहीं होंगी,विवेक जाग्रत नहीं हो सकता है.
ऐसा तभी सम्वभव है,जब सदगुरू सामने हो.

Bhadauria ने कहा…

बिनु सत्सन्ग विवेक न होई.जबतक अच्छा सदगुरु सामने नहीं होगा,विवेक प्राप्त होना मुशिकिल है.पाँच प्राण ,पाँच इन्द्रिया,मन बुद्धि और अह्न्कार ,जब तक कन्ट्रोल नहीं होंगी,विवेक जाग्रत नहीं हो सकता है.
ऐसा तभी सम्वभव है,जब सदगुरू सामने हो.