गुरुवार, 19 जुलाई 2007

जीवन और मृत्यु


प्राण क्या है?
जिस अन्न को हम खाते है,वह पेट मे चला जाता है,वहां पर नाभि मे रहने वाली जठराग्नि उस खाये हुए अन्न को दुबारा से पकाती है,चन्द घंटो के अन्दर उस अन्न का स्थूल भाग मल मूत्र से बाहर चला जाता है,उसका वास्तविक तत्व भीतर ही रह जाता है,उसी जठराग्नि के द्वारा वह शक्ति के रूप मे बदल जाता है,और प्राण बाही स्त्रोतों के द्वारा शरीर के सारे अन्गो मे प्रवाहित होता रहता है,साधारण लोग प्राण का अर्थ वायु से लेते है,माना जाता है कि हवा हमारे जीवन के लिये सबसे अधिक आवश्यक है,इसलिये हम अगर उसको प्राण के नाम से पुकारने लगे तो कोई बुराई नही है,लेकिन प्राण उस शक्ति का नाम है,जो जीवन देती है,इसी को जीवनी शक्ति कहते हैं । सिर के पीछे के भाग मे मेडुलाआबलम्बगेटा नामक भाग से सुष्म्ना नामक नाडी निकलती है,और पीछे से रीढ की हड्डी के बीच से होती हुई गुदा मार्ग तक जाती है,इस बीच मे रीढ की हड्डी के जितने जोइन्ट है,सभी को सिर से प्राप्त सन्देशों को देना और और सम्बन्धित भाग से सन्देश प्राप्त करने के बाद सिर को भेजना,इस नाडी का मुख्य काम माना जाता है,लेकिन शरीर मे अपने द्वारा जब प्रक्रति से विपरीत वस्तुओ का भोजन करने से या आहार विहार करने से उस प्रक्रति को खराब कर लेते हैं,तो यह सुष्म्ना अपना काम करने मे उसी आहार विहार के अनुसार अनुशरण चालू कर देती है,और जो कभी समाज मे अच्छा जाना जाता था,उसे लोग बुरा कहना चालू कर देते है,इसी नाडी को सुरति,कुन्डलिनी,शक्ति,और आद्याशक्ति,प्राण शक्ति आदि नामो से पुकारा जाता है ।यह जीवन शक्ति ब्रहमाण्ड से नीचे उतरती है,तो सिर मे अपना फ़ैलाव माथे और चोटी के अलावा भी कितने ही स्थानो की तरफ़ करती है,पौराणिक कथाओ और मह्रिषियों के अनुसार इनकी सन्ख्या बहत्तर लाख बताई है,इन बहत्तर लाख मे तीन इनकी मुख्य नाडी है,पहली इडा,दूसरी पिन्गला,तीसरी सुषुम्ना । ये ही तीनो आपस मे गुंथी हुई मेडुलाआबलम्बगेटा से अपना स्थान बताते हुई,गुदा मर्ग तक उतर जाती है,गुदा मार्ग के पास इन तीनो ने मिलकर अपनी शक्ल एक ग्रन्थि के आकार की बना ली है,यही से इनका बहाव रुक जाता है और इनमे से छोटी छोटी नशे पावों की तरफ़ चली जाती हैं । साधारण रूप मे प्राण का बहाव इडा और पिन्गला मे रहता है,मगर योग की साधना करने पर कुन्डलिनी की धार सुषुम्ना के अन्दर आजाती है,पिन्गला मे प्राण जाने पर जिसे साधारण भाषा मे सूर्य नाडी कहते है और नाक के दाहिने भाग मे बहने वाली हवा के प्रभाव को परख कर किया जाता है,के द्वारा ह्रदय मे और शरीर की इन्द्रियो मे रजोगुण का प्रभाव पैदा हो जाता है,और इडा का प्रभाव जो कि चन्द्र नाडी का माना जाता है के द्वारा ह्रदय और इन्द्रियो मे तमोगुणी प्रभाव पैदा हो जाता है । इडा नाडी का रंग नीला है, और "र" इसका बीज अक्षर है,वाहन मेढा है,प्रधान तत्व आग है,आग हवा से मिलकर र अक्षर का उच्चारण करता है,यह चक्र त्रिकोण मे है और ड से फ़ तक वर्ण माला के दस अक्षर निकलते है,यहां के चैतन्य भगवान विष्णु और शक्ति वैष्ण्वी का निवास होता है । माया क चौथा ठहराव लिंग मे है,इसे ही स्वाधिष्ठान चक्र कहते है,इसका रंग गुलाबी है,और बनावट आधे चन्द्रमा के आकार की है,बीज अक्षर "ब" है,वाहन "मगर" है और तत्व जल है,रंग चन्द्रमा की तरह से सफ़ेद है,इसके दलो से ब से लेकर ल तक के अक्षर सुनाई देते है,इस चक्र के मालिक ब्रहमा और देवी ब्रहणी है,संसार की उतपत्ति यही से मानी जाती है । शरीर मे पांचवा चक्र गुदा और लिन्ग के बीच मे है,इस चक्र का प्रधान तत्व भूमि है,रंग मटमैला है,इसमे चार दल हैं,इसलिये ही यह मूलाधार कहलाता है,इसका बीज अक्षर "ल" है,वाहन हाथी है,अक्षर ब से लेकर स तक ही अक्षरो की ध्वनि सुनाई देती है,यहां के देवता श्री गणेशजी है,और देवी डाकिनी है,छठा चक्र दोनो भ्रकुटी के बीच है,इसका नाम आज्ञा चक्र है,यह आधा स्थूल है और आधा सूक्ष्म,इसका रूप सफ़ेद तारे की तरह से है,गोल है,ऊपर और नीचे दो दल है,जिसमे ह और क्ष दो अक्षर निकलते हैं,यही वह खिडकी है जिसमे से होकर जीवात्मा शरीर मे उतरती है,हठ योग मे इस स्थान से औम शब्द का निकलना मानते हैं,अभ्यास करने पर यहां घन्टे की ध्वनि सुनाई देती है,इसके बाद और आवाजें जिनमे परा,पश्यन्ती,मध्यमा,और वैखरी मुख्य है सुनाई देती हैं,परा संकेत होती है,पश्यन्ती ह्रदय की आवाज होती है,जो सूक्षम रूप से विचार की शक्ल मे भीतर से ही उठती है,मध्यमा कन्ठ मे अपना रूप धारण कर शब्द का सूक्षम रूप बनाती है,और वैखरी जीभ पर स्थूल शब्द का निरमाण कर बाहर जगत मे प्रकट हो जाती है,जिस प्रकार से किसी पके फ़ल को जोर से दबाने पर उसका बीज छिटक कर बाहर दूर चला जाता है,उसी प्रकार से आत्मा पर माया का भारी बोझ पडते ही जीव बाहर चला जाता है,और किसी दूसरी जगह पर अपने पिछले कर्मो के अनुसार प्राप्त होने वाली जगह पर नया जीवन लेता है,केवल छिलका हाथ मे रह जाने का तात्पर्य है मरी हुई देह का रह जाना,इसी जन्म लेने और मरने के बीच का नाम ही जीवन है,इस जीवन मे जो भी पडाव आते है,वे ही अनुभव होते हैं,और जो अनुभवो के आधार पर कहा सुना जाता है,वह भी काल,स्थान,और प्रभाव के द्वारा ही सत्यता पर खरा उतरता है,इसी के द्वारा भदावरी ज्योतिष मे जो बखान किया जाता है वह केवल काल गणना के आधार पर और स्थान विशेष के आधार पर ही कहा जाता है,ज्योतिष मे जीव ही गुरु है,और सूर्य आत्मा है,शनि कर्म है,शनि के बाद मे जो भी ग्रह बैठता है वही कर्म को बताता है ।

1 टिप्पणी:

रचना गौड़ ’भारती’ ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा है। बधाई स्वीकारें।